लोकसभा चुनाव में एनडीए की 400 व अपने दम पर 370 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है। कांग्रेस, आप और टीएमसी समेत विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन को भानुमति का कुनबा कहने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी खुद अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ नये साथी जोड़ने में लगी है।
राष्ट्रीय स्तर पर जहां राहुल गांधी के मुकाबले चुनाव प्रचार में प्रधान मंत्री मोदी की टक्कर कराई जा रही है। वहीं दूसरी तरफ क्षेत्रीय स्तर पर बिहार में तेजस्वी यादव के मुकाबले नीतीश कुमार और चिराग पासवान की जोड़ी होगी। आंध्र प्रदेश में वाईएस जगन मोहन रेड्डी के मुकाबले चंद्रबाबू नायडू भाजपा के साथ दिखाई देंगे। तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे ,कांग्रेस और शरद पवार की जोड़ी के मुकाबले एकनाथ शिंदे, अजित पवार और राज ठाकरे की जोड़ी को भाजपा साथ लाना चाहती है। इतना ही नहीं पंजाब में आप के मुख्यमंत्री भगवंत मान को चुनौती देने के लिए शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर बादल को एनडीए के परिवार में फिर से वापस लाने की कवायद तेज है। अब लाख टके का सवाल ये है कि भाजपा को इन सबकी जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है? इस बात को जानने के लिए इन राज्यों की ताजा हलचल जान लेना जरुरी है ।
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महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कोई एक-दो दिन की कवायद नहीं है। जब से महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार का पतन हुआ है। तभी से भाजपा के कर्ताधर्ताओं की नजर मनसे पर जा टिकी थी। खुद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भी कई बार राज ठाकरे से उनके आवास पर जाकर मुलाकात कर चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े भी लगातार एम एन एस मुखिया के संपर्क में बने हुए थे। बावजूद इसके कि पिछले तीन लोकसभा चुनावों में कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई है।
आंकड़ों पर नजर डालें तो 2009 के लोकसभा चुनावों में राज ठाकरे की पार्टी को महाराष्ट्र की आवाम ने 4.6 फीसदी वोट दिया। मगर सीट एक भी नहीं मिली। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में तो मनसे ने हिस्सा ही नहीं लिया था। वहीं महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी मनसे का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है। पार्टी का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 में देखने को मिला था। जब उसे 5.71 फीसदी वोट और 13 असेंबली सीटें मिलीं। उसके बाद से परफॉरमेंस में गिरावट ही दर्ज हुई। 2014 के विधानसभा चुनावों में मनसे को 3.15 फीसदी वोट और महज एक सीट मिली। वहीं 2019 के चुनावों में एक भी सीट नसीब नहीं हुई। वोट प्रतिशत भी गिरकर 2.5 फीसदी पर आ गया। बताया जाता है कि मनसे प्रमुख राज ठाकरे की वजह से भाजपा की पकड़ मराठा वोट बैंक पर मजबूत होगी ।बावजूद इसके अगर भाजपा को महाराष्ट्र में मनसे का साथ चाहिए तो इसकी वजह पार्टी के जनाधार से ज्यादा इसके मुखिया राज ठाकरे के नाम के साथ लगा ‘ठाकरे’ सरनेम है। वरिष्ठ पत्रकार चेतन काशीकर कहते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीति में दो खानदान बहुत बड़े हैं। पहला ठाकरे और दूसरा पवार। पवार कुनबे में नई पीढ़ी के सबसे बड़े नाम अजित पवार अब भाजपा के साथ हैं। मगर ठाकरे की नई पीढ़ी के उद्धव ठाकरे भाजपा के खिलाफ हैं। ऐसे में राज ठाकरे को साथ रखकर काफी हद तक इस कमी को पूरा किया जा सकेगा।महाराष्ट्र की सत्ता से जिस तरह उद्धव ठाकरे को हटाकर एकनाथ शिंदे की ताजपोशी कराई गई। उसे लेकर मराठी मतदाताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा से नाराज बताया जाता है। या फिर यूं कहें कि इस वर्ग की हमदर्दी उद्धव ठाकरे के साथ है। मराठा सियासत की जानकारी रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं-उद्धव ठाकरे को जिस तरह हटाया गया, उसकी वजह से मराठा वोटर का एक बहुत बड़ा वर्ग उनसे हमदर्दी रखता है। वजह है बाला साहेब के प्रति मराठी मानुष की श्रद्धा। ऐसे में ठाकरे को मिलने वाली सिंपैथी की तोड़ के तौर पर एक और ठाकरे का आगे करना भाजपा का अहम हथियार साबित हो सकता है। यही वजह है कि महायुत्ति सरकार बनने के बाद एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फड़णवीस कई बार राज ठाकरे में मिल चुके हैं।
महाराष्ट्र की राजनीति में करीब ढाई करोड़ मराठीभाषी वोटर अहम भूमिका निभाते हैं। इस वर्ग को परंपरागत तौर पर कांग्रेस, शिवसेना और एन सी पी का वोटर माना जाता रहा है। बाला साहेब ठाकरे और भाजपा की नजदीकियों की वजह से कुछ मराठी वोट भाजपा को भी मिलते रहे हैं। मगर अबकी बार इस वर्ग को साधना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। सुभाष शिर्के भी विचार से सहमति जताते हुए कहते हैं-
अब जबकि उद्धव ठाकरे और भाजपा में छत्तीस का आंकड़ा है तो भाजपा को राज ठाकरे की जरूरत पड़ रही है। पहले भी इसी मराठी वोटर के चक्कर में भाजपा ने देवेंद्र फड़णवीस की जगह एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया। फिर अजित पवार को अपने साथ लाए। और जब इतना काफी नहीं लगा तो कांग्रेस से तोड़कर अशोक चव्हाण को भी साथ मिला लिया।
लोकसभा चुनावों से पहले शरद पवार, उद्धव ठाकरे और राहुल गांधी की तिकड़ी महाराष्ट्र के गांव-गांव और शहर-शहर में घूमकर महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भाजपा को घेरने का काम कर रही है। ऐसे में पहले से ही एन डी ए का हिस्सा बन चुके अजित पवार के साथ राज ठाकरे की जोड़ी शक्ति संतुलन का काम कर सकती है ऐसा बता जाता है ।
महाराष्ट्र के शहरों में राज ठाकरे का अच्छा असर है। जबकि गांवों में उद्धव ठाकरे की पकड़ है। ऐसे में जब उद्धव ठाकरे गांव-गांव घूमकर भाजपा को घेरने में लगे हैं तो गांव से आकर शहरों में बसे मराठी मानुष पर राज ठाकरे का जादू काम आ सकता है। आसान शब्दों में कहें तो (उद्धव) ठाकरे की काट (राज) ठाकरे वाली बात है।
एनडीए के गठन के वक्त से ही शिरोमणि अकाली दल और भाजपा का साथ रहा है। अकाली 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का भी हिस्सा थे। जबकि 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो अकाली दल की हरसिमरत कौर उनके मंत्रिमंडल का अहम हिस्सा थीं। मगर राज्य स्तर पर दोनों दलों के नेताओं में मतभेद होते रहे। ऐसे में जब 2020 में किसान आंदोलन शुरू हुआ तो अकाली दल ने पंजाब के किसानों का समर्थन करते हुए मोदी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। उसके बाद हुए पंजाब विधानसभा चुनावों में अकाली दल और भाजपा को भारी नुकसान हुआ। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियां उस नुकसान की भरपाई कर लेना चाहती हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो पंजाब के चुनावों में एसडीए का अच्छा खासा प्रभाव देखने को मिलता है। 2019 के लोकसभा चुनावों में अकाली दल को राज्य की 13 में से 2 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी। वोट शेयर था 27.76 प्रतिशत। जबकि 2014 में पार्टी ने 26.30 वोट परसेंट के साथ 4 सीटों पर कब्जा किया था। 2009 में भी अकाली दल के खाते में 4 सीटें आई थीं और वोट प्रतिशत था 33.9 फीसदी। जाहिर सी बात है कि इतने बड़े वोट शेयर को खोना भाजपा और एनडीए दोनों के हित में नहीं होगा।
पंजाब के अकालियों की तरह ही तमिलनाडु में पट्टाली मक्कल काची भी अटल बिहारी वाजपेयी युग से एनडीए का हिस्सा रही है। पट्टाली मक्कल काची प्रमुख अंबुमणि रामदॉस के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर दक्षिण भारत में ये संदेश देने के लिए काफी है कि अब दोनों दलों के बीच सब ठीक है। तमिल वोट बैंक पर पी एम् के की पकड़ को नजर अंदाज़ नहीं किया जा सकता। 2019 के लोकसभा चुनावों में पी एम् के को भले ही एक भी सीट ना मिल पाई हो, मगर 5.36 फीसदी वोट जरूर हासिल हुआ था। जबकि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 4.51 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट पर जीत भी दर्ज की थी। 2009 आम चुनावों में भी पार्टी को किसी सीट पर जीत नहीं मिली, मगर 6.4 फीसदी वोट जरूर हासिल हुआ। आंकड़ों से साफ है कि पट्टाली मक्कल काची के पास छोटा ही सही मगर स्थाई वोट बैंक है और उसी वोट बैंक पर भाजपा की नजर है।
बताया जाता है कि यह गठबंधन तमिलनाडु में भाजपा को फायदा पहुंचा सकता है। राज्य के प्रभावशाली वन्नियार समुदाय के बीच प्रधान मंत्री के की पैठ है। उत्तर तमिलनाडु के बड़े इलाके में अंबुमणि के दल की पकड़ मानी जाती है। ऐसे में अब तक जनाधार विहीन रही भाजपा को एक बड़े वर्ग में पैठ बनाने का मौका मिलेगा। सूत्रों के अनुसार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में दक्षिण के राज्यों से 50 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। ऐसे में तमिलनाडु में गठबंधन को मजबूती मिलना भाजपा के लिए फायदेमंद है।
यही नहीं इस समीकरण के चलते राज्य के मुख्य विपक्षी दल एआईएडीएमके को भी झटका लगा है, जो उम्मीद कर रही थी कि चुनाव तक भाजपा संग गठजोड़ हो जाएगा। दरअसल पहले प्रधान मंत्री के का गठजोड़ एआईएडीएमके के साथ ही था, लेकिन अंबुमणि रामदास ने तय किया कि इस बार भाजपा के साथ ही लोकसभा चुनाव में उतरा जाए। उन्होंने एआईएडीएमके को भी एनडीए के खेमे में वापस लाने की कोशिश की, लेकिन उस पर सहमति नहीं बन सकी। अंत में मंगलवार को भाजपा चीफ के। अन्नामलाई थैलापुरम पहुंचे और वहां प्रधान मंत्री के लीडरशिप से मीटिंग के बाद सीट शेयरिंग की डील हुई। गौरतलब है कि तमिलनाडु में इंडिया अलायंस का भी मजबूत गठजोड़ है। यहां कांग्रेस और डी एम के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।